" तेरी निगाह की वर्फ पिघलने लगी है आज
में भी तो नदी हूँ मुझे अपना सफ़र मालूम है."
सूर्य भी पर्वत की ढलानों से लुढ़क कर आ रहा है
में सुलगता हूँ अगरबत्ती सा सुगंधों को हुनर मालूम है
सियासत बीन बजाती रहे अब संसदों में
हमको डसते नाग को अपना जहर मालूम है." -- राजीव चतुर्वेदी
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