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Saturday 19 May 2012

फिर अचानक भूख क्यों गुनगुनाने लगे." -----राजीव चतुर्वेदी

"शहनाईयाँ क्यों सो गयीं इस रात को 
मर्सीये मर्जी से क्यों गाने लगे,
राजपथ के रास्ते क्यों रुक गए 
जनपथों पर लोग क्यों जाने लगे 
इस शहर में लोग तो भयभीत थे 
फिर अचानक भूख क्यों गुनगुनाने लगे 
मैंने तो पूछा था अपने वोटों का हिसाब 
वो नोटों का हिसाब क्यों बतलाने लगे 
घर का चौका चीखता है खौफ से, खाली कनस्तर कांखता है 
हमारी कंगाली का हिसाब शब्दों की जुगाली से संसद में वो बतलाने लगे 
राजपथ के रास्ते क्यों रुक गए 
जनपथों पर लोग क्यों जाने लगे 
इस शहर में लोग तो भयभीत थे 
फिर अचानक भूख क्यों गुनगुनाने लगे.
-----राजीव चतुर्वेदी

Thursday 17 May 2012

"पतिताओं की कविताओं पर---- राजीव चतुर्वेदी


‎----फेसबुक का कथित किन्तु व्यथित साहित्यिक परिदृश्य ---

"पतिताओं की कविताओं पर
वाह ...वाह और अद्भुत ...अद्भुत...
यहाँ लफंगे जन-गण-मन का जश्न मनाते मैंने देखे
हर कायर शायर बन कर संसद पर फायर कर देता है
और शातिरों की हर शर्तें सत्यों को संगीत सुनाती मैंने देखीं
कर्तव्यों के वक्तव्यों में बकवासों के रूप बहुत हैं
यहाँ गली का हर आवारा ईलू -ईलू काव्य कर रहा
प्रोफाइल पर उसकी फर्जी फोटो देख मुग्ध है इतना
देह को उसके भांप रहा है, दर्शन में वह नाप रहा है, शब्दों से वह काँप रहा है
पतिताओं की कविताओं पर
वाह ...वाह और अद्भुत ...अद्भुत...
और यहाँ पर प्रौढ़ उम्र में प्रणय निवेदन करती कविता
सत्य यहाँ शातिर सा दिखता अधिकारों के श्रृंगारों में
कुछ की हिन्दी रति से नहीं विरत हो पाई रीतिकाल में फंसी पड़ी है
श्रृंगारों का श्रेय ले रहे अंगारों की आढ़त उनकी
आत्म मुग्धता का अंधियारा और अध्ययन का उथलापन
गूलर के भुनगे की ख्वाहिश धरती की पैमाइश की है
करुणा की कविता कातर सी कांख रही है
यहाँ ग्रुपों में बंटा सा अम्बर आडम्बर से अटा पड़ा है
लिख पाओ तो मुझे बताना,
पढ़ पाओ तो मुझे सुनाना, -- कविता की परिभाषा क्या है ? " ---- राजीव चतुर्वेदी

Friday 11 May 2012

आओ हम सब मिलकर सच की आस्था को ठेस पहुंचाएं और कविता गुनगुनाएं." -----राजीव चतुर्वेदी

"फेसबुक पर कठिन है सत्य बोलना,
हनुमान जी की बातें करो
तो वेश्याओं के मोहल्ले में हाहाकार मच जाता है
कि यह व्यक्ति हमारी दूकान ही ठप्प कर देगा
वेश्याएं सेकुलर जो होती है,
कोलंबस की बात करो तो
गूलर के भुनगे भिनभिनाते हुए अपने ग्लोब्लाईजेसन को बघारने लगे



चमगादड़ के शब्दकोष में सूरज अंधियारा करता है
हिन्दुओं की रूढ़ियाँ तोड़ोगे हिंदूवादीयो की आस्था को ठेस पहुंचेगी
इस्लाम का इहिलाम हुआ तो फतवा काम तमाम कर सकता है
ईसाईयों ने तो ह़र साल ईसा मसीह को
सूली सजा कर उसपर उन्हें बार बार टांगने में परहेज नहीं किया
गेलीलियो के घर का बहुत पहले ही बुझा दिया था दिया
इस लिए खामोश !! 
--ईसाईयों की बात मत करना सच बोलने से उनकी आस्था को भी ठेस पहुँचती है



कोंग्रेसीयों /भाजपाईयों /सपाईयों /बसपाईयों/चोरों /हरामजादों के बारे में भी सच कभी नहीं बोलना
आखिर उनकी भी आस्था है उनको भी ठेस पहुँचती है
कविता या साहित्य की बात भी यहाँ नहीं करना
क्योंकि वह जो स्वयम्भू सम्पादक जैसा बिजूका है एडमिन
उसे कविता की न भाषा ही पता है और न परिभाषा
यहाँ सच न बोलना इससे किसी न किसी की आस्था को ठेस पहुँचती ही है
आओ साहित्य लिखे बेतुकी बातों को तुक में पिरोयें पर प्रेमिका की बात मत करना
इससे उस प्रेमिका के परिजनों की आस्था को ठेस पहुँचती है
आओ हम सब मिलकर सच की आस्था को ठेस पहुंचाएं और कविता गुनगुनाएं." -----राजीव चतुर्वेदी

Tuesday 8 May 2012

सफ़र लंबा है,...मुझे जाना है...चल रहा हूँ मैं ..." --राजीव चतुर्वेदी


" ऐ उड़ते हुए फरिश्तो,--- मेरी फेहरिस्त देख लो

हैं नाम इसमें दर्ज वही लोग हैं यहाँ

जिनका ज़मीर जिंदा है जज़्वात हैं वहां

अभी ऐतबार बाकी है मुझे कुछ और दिन रहना है

अभी प्यार बाकी है कुछ लोगों को उसे देना है

वो मोहब्बत, वो इमारत, वो इबारत डूबती है आँख में मेरी



मैं और रहना चाहता था, जिन्दगी से प्यार मेरे यार मुझको भी था



मैं जाता हूँ ,...सफ़र है यह, ...गुजरता हूँ गुजारिश से



मैं नहीं रहूँगा फिर भी कर सको तो मेरी वफाओं पे ऐतबार कर लेना



ऐ उड़ते हुए फरिश्तो मेरी फेहरिस्त देख लो



सफ़र लंबा है,...मुझे जाना है ,...चल रहा हूँ मैं ..." -----राजीव चतुर्वेदी

Tuesday 1 May 2012

यहाँ साहित्य का वीराना है -----राजीव चतुर्वेदी

‎" यहाँ साहित्य का वीराना है
यहाँ शब्दों के झुरमुट से आवाज़ देता है कौन ?
चौंकता हूँ..., देखता हूँ पीछे मुड मुड के
तुम खड़े थे ...तुम खड़े हो ...और कोई भी नहीं
आओ... चली आओ ह्रदय के पास, सुन लो धड़कने मेरी
सुर्ख से कुछ शब्द हैं मेरे पास तुम्हारी मांग में भरता हूँ मैं सिन्दूर सा
हर आचरण का व्याकरण है इन शब्दों की चादर में,... ओढ़ लो तुम भी
तुम्हारे माथे का जो चुम्बन लिया था कभी मैंने, उसे बिंदी समझ लेना
यहीं से यात्रा प्रारंभ होती है, चलो विश्राम कर लें
यहाँ साहित्य का वीराना है
यहाँ शब्दों के झुरमुट से आवाज़ देता है कौन ?
चौंकता हूँ..., देखता हूँ पीछे मुड मुड के
तुम खड़े थे, ...तुम खड़े हो ...और कोई भी नहीं ." -----राजीव चतुर्वेदी