" यहाँ साहित्य का वीराना है
यहाँ शब्दों के झुरमुट से आवाज़ देता है कौन ?
चौंकता हूँ..., देखता हूँ पीछे मुड मुड के
तुम खड़े थे ...तुम खड़े हो ...और कोई भी नहीं
आओ... चली आओ ह्रदय के पास, सुन लो धड़कने मेरी
सुर्ख से कुछ शब्द हैं मेरे पास तुम्हारी मांग में भरता हूँ मैं सिन्दूर सा
हर आचरण का व्याकरण है इन शब्दों की चादर में,... ओढ़ लो तुम भी
तुम्हारे माथे का जो चुम्बन लिया था कभी मैंने, उसे बिंदी समझ लेना
यहीं से यात्रा प्रारंभ होती है, चलो विश्राम कर लें
यहाँ साहित्य का वीराना है
यहाँ शब्दों के झुरमुट से आवाज़ देता है कौन ?
चौंकता हूँ..., देखता हूँ पीछे मुड मुड के
तुम खड़े थे, ...तुम खड़े हो ...और कोई भी नहीं ." -----राजीव चतुर्वेदी
यहाँ शब्दों के झुरमुट से आवाज़ देता है कौन ?
चौंकता हूँ..., देखता हूँ पीछे मुड मुड के
तुम खड़े थे ...तुम खड़े हो ...और कोई भी नहीं
आओ... चली आओ ह्रदय के पास, सुन लो धड़कने मेरी
सुर्ख से कुछ शब्द हैं मेरे पास तुम्हारी मांग में भरता हूँ मैं सिन्दूर सा
हर आचरण का व्याकरण है इन शब्दों की चादर में,... ओढ़ लो तुम भी
तुम्हारे माथे का जो चुम्बन लिया था कभी मैंने, उसे बिंदी समझ लेना
यहीं से यात्रा प्रारंभ होती है, चलो विश्राम कर लें
यहाँ साहित्य का वीराना है
यहाँ शब्दों के झुरमुट से आवाज़ देता है कौन ?
चौंकता हूँ..., देखता हूँ पीछे मुड मुड के
तुम खड़े थे, ...तुम खड़े हो ...और कोई भी नहीं ." -----राजीव चतुर्वेदी
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